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एक ऐसा मंदिर जिसमें शिला रूपी स्वयंशम्भू का आकार बढ़ रहा है

khaskhabar.com : शुक्रवार, 29 सितम्बर 2017 11:59 AM (IST)
एक ऐसा मंदिर जिसमें शिला रूपी स्वयंशम्भू का आकार बढ़ रहा है
कलानौर(गुरदासपुर ) नरेंद्र शर्मा । कलानौर में एक ऐसा प्राचीन शिव मंदिर है जिसमें शिवलिंग नहीं बल्कि स्वयंशम्भू विराजमान हैं। कहते हैं स्बयंशम्भू का यह
शिलारूपी शरीर निरन्तर फैलता है और लगातार फैल रहा है। मोहमद लतीफ द्धारा अनुबादित पंजाब का इतिहास (भाग -१) के अनुसार 1388 तक इस मंदिर का नाम महकनेश्वर था! 1350-55 में आये भूकंप के कारण यह गिर गया और 1560 तक धरती के नीचे ही दवा रहा।

कलानौर किले के इस हिस्से के समीप शाही घुड़साल थी। धरती के नीचे यह मंदिर घुड़साल में जाने वाले रस्ते में पड़ता था जो घोडा मंदिर वाले स्थान के ऊपर से गुजरता था बह अँधा हो जाता था जबकि आस-पास से गुजरने वाले घोड़े ठीक रहते थे। शाही मनसबदार और घुड़साल के सेवादार इससे बहुत परेशान थे क्योंकि उन दिनों घोड़े के अलावा आने जाने के साधन अत्यंत कम थे इसलिए घोड़ों का अत्यधिक महत्व था। घुड़साल में उनका खूब ख्याल रखा जाता था। घोड़ों पर राजा की हमेशा नज़र रहती थी जब मनसबदारों और घुड़साल के सेवादारों की समझ में कुछ न आया तो उन्होंने देहली में अकबर तक यह सन्देश पहुंचाया, जब अकबर को पता चला तो बह स्वयं यहां आया, अकबर खुदा को मानने वाला तो था मगर अन्धविश्वासी नही था उसने अपना घोडा उस स्थान से गुजार कर देखा ! जब उसका घोडा भी अँधा हो गया तो बह हैरान रह गया! शहनशाह ने वहां खुदाई करने का हुकम दिया। खुदाई में वहां से मंदिर के अवशेष मिले जब खुदाई सात -आठ फुट नीचे गयी तो वहां उन्हें अधलेटे व्यक्ति के आकर की एक काली शिला मिली। शंकर भगवान की पिंडी नंगी हो गयी ! खुदाई करने वाले चिलाये "यह तो काला नूर है" इसे देखकर अकबर ने कहा की यह तो मज़ार है। वहां एकत्रित हुए हिंदुओं का कहना था की यह महकानेश्वर महाराज की देह है। ! अकबर ने इसे हथोड़े से तुड़वाना आरम्भ कर दिया ! परन्तु जैसे ही इस शिला पर हथोड़े की चोट पड़ती बह टूटने की बजाए चौड़ा होता जाता। बादशाह ने छेनियाँ मंगवाई और इसे तोड़ने का प्रयास किया। मजदूरों ने जैसे ही इस पर छेनी की चोट की तो शिला से एक जीब निकल आया !बह जिस भी मज़दूर को काटता था वह मज़दूर बेहोश हो जाता था। शिला पर छेनी के निशान आज भी मौजूद हैं। शंहशाह ने नगर के हिन्दू पंडितों को बुलाया और इस स्थान के बारे में जानकारी ली ! हिन्दू पंडितों ने शंहशाह को बताया कि यहाँ सदियों पुराना महकानेश्वर जी का मंदिर था और अधलेटे व्यक्ति के रूप में स्वयंशम्भु हैं। अकबर को इस बात का पता चला तो उसने हिन्दू बिधि से वहां स्वयंशम्भु महाराज की पुनः प्रतिष्ठा करवाई ।

उसने पंडितों से कहा कि मैं चूँकि मुस्लमान हूँ इसलिये मंदिर नहीं बनवा सकता हूँ ! मैं यहां मकबरे टाइप के आकर की इमारत बनवा देता हूँ आप उसमे हिन्दू विधि-विधान अनुसार अपनी पूजा अर्चना करते रहें । कहते हैं की उस समय अकबर ने उस स्थान पर मकबरे के आकार की इमारत बनवाकर हिंदुओं के हवाले कर दी थी। मुग़ल राज्य के बाद महाराजा रंजीत सिंह का शासन आया। महाराजा रंजीत सिंह कांगड़ा को फतेह करके बापिस लाहौर लौट रहे थे। गुरदासपुर -कलानौर के विच बह बीमार पड़ गए। वैध-हाकिमों ने बहुत इलाज़ किया मगर महाराजा की तबियत में सुधार नहीं हो रहा था।
उनके सूबेदार दिन नाथ ने कहा की कलानौर के मंदिर तक चलें परन्तु जब महाराज को यहाँ लाया गया तो बह बोले की यह तो मकबरा है। वह अंदर गए और अरदास की और शीघ्र ही बह ठीक हो गए। उन्होंने मकबरे के स्थान पर मंदिर बनबाने की मन्नत मांगी। ठीक होते ही अफ़ग़ानिस्तान के लिए चल दिए। वह अफगानिस्तान फतेह करके वापस आए तो लाहौर में उनका देहांत हो गया। राज कुमार खड़क सिंह पिता की मन्नत की बात जानते थे ! उन्होंने मकबरा तोड़कर इसके स्थान पर मंदिर बनबाया ! उन्होंने मंदिर के नाम 200 एकड़ जमीन भी लगबाई थी! सदियों से मंदिर की सेवा कर रहे परिवार के महंत साई दस् ने बताया की स्वयशम्भू का शिला रूपी शरीर धीरे-धीरे फैल रहा है।

उन्होंने बताया की जब बह छोटे से थे तो चढ़ावे के पैसे इकठे करने के लिए शिला के एक तरफ से आसानी से निकल जाते थे। आज उस तरफ से हाथ भी नही निकलता है साल में यह कितना बढ़ता है। इसकी कभी पैमाइश नहीं की गयी परन्तु यह निश्चित है की स्वयं शम्भू का आकर बढ़ रहा है यह मंदिर भारत-पाक सीमा से केवल 7-8 किलो मीटर के फासले पर है ! 1965 और 1971 के दोनों ही युद्धों के समय इस मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है।
शंकर भगबान यहां पहुंचे कैसे ?
पुराणों अनुसार जब गणेश जी और कार्तिके के मध्य रिद्धि-सिद्ध प्राप्त करने की होड़ लगी तो शिव -पार्वती ने कहा की त्रिलोकी का चक्र लगाकर जो सबसे पहले आएगा बही उसका हक़दार होगा इतना सुनते ही कार्तिके त्रिलोक का चक्र लगाने निकल पड़े थे ! जब बह यहां से ४-५ किलो मीटर के फैसले पर अचल धाम में विश्राम कर रहे थे तो नारद जी वहां पहुंच गए ! उन्होंने कार्तिके से पूछा की बह इधर कैसे घूम रहे हैं ! तब कार्तिके ने कैलाश पर हुआ सारा वृतांत नारद जी से बताया ! तब नारद जी ने कहा की शर्त तो गणेश जीत चुके हैं और उन्हीं ऋद्धियों-सिद्धियों का धारक घोषित भी किया जा चुका है। यह सुन कर कार्तिके गुस्से में आ गए! उन्होंने निर्णय किया की वापस कैलाश नहीं जायेंगे। देवता उन्हें मनाने आये परन्तु वह कैलाश जाने के लिए राजी नहीं हुए। देवता भगवान शिव के पास गए और उन्हें कार्तिके को मनाने के लिए राजी किया। शंकर भगवान यहां इस स्थान पर आकर ठहरे थे ! यही पर उन्होंने कार्तिके को बुलाया था और विधि का विधान समझया था ! जिसके बाद कार्तिके का का गुस्सा शांत हुआ था ! तब उन्होंने कहा था की मैं यहां महकानेश्वर के नाम से जाना जाएगा।
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