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स्वाध्याय का अर्थ है अपने को सुधारना- मुनि पीयूष सागर
जयपुर। अतिशय क्षेत्र बाड़ा पदमपुरा में मंगलवार को परम् पूज्य अंतर्मना मुनि प्रसन्न सागर महाराज की 186 दिवसीय सिंहनिष्क्रीड़ित आर्यमौन व्रत साधना 9 जुलाई से निरंतर चल रही है, इस दौरान संघस्थ मुनि पीयूष सागर महाराज ने स्वाध्याय सभा के दौरान कहा कि " स्वाध्याय का अर्थ है अपने को टटोलना। " धर्मात्मा धर्म का आधार है तथा धर्म जीवन का सार है। स्वाध्याय का अर्थ है, अपने को टटोलना, अपनी बुराई को दूर कर सुधारना, अपनी प्रवृतियो को अशुभ से शुभ की ओर ले जाना।
मुनिश्री ने आगे कहा कि " पुण्य बड़ा धोखे बाज है। पुण्य का उदय में आना कभी नहीं रोका जा सकता, लेकिन पुण्य का भोग तो रोका जा सकता है जैसे कोई आपको कुछ गिफ्ट देना चाह रहा है लेकिन आप उसे आनाकानी के बाद भी नहीं लेते। तो यह पुण्य का भोग रोकना हुआ।
आज आप जो भी सुख, सम्पनता, सुस्वास्थ्य, अच्छा कुल, उच्च धर्म इत्यादि भोग रहे हो वह सब आपके पूर्व संचित पुण्य का ही प्रतिफल है। इसलिए व्यक्ति को अपने आचरण को पुण्यार्जक गतिविधियों में लगाना चाहिए और पुण्य बढ़ाने की गतिविधियों में ही रहना चाहिए।
पुण्य की यह एफ.डी ही वास्तव में आगे के भवो में सुखद स्थिति के लिए कारक होगी। इसमें भी सावधानी यह रखनी होगी की पुण्य की एफ.डी में से सिर्फ ब्याज ही काम में ले, मूलधन को सुरक्षित रखा जाय। पूजन सामग्री उत्कृष्ट हो तो पूजन का फल भी उत्कृष्ट मिलता है। जैसी सामग्री हो वैसा ही मन भी हो जाता है जैसे थाली में रखा भोजन।
मुनिश्री ने आगे कहा कि " पुण्य बड़ा धोखे बाज है। पुण्य का उदय में आना कभी नहीं रोका जा सकता, लेकिन पुण्य का भोग तो रोका जा सकता है जैसे कोई आपको कुछ गिफ्ट देना चाह रहा है लेकिन आप उसे आनाकानी के बाद भी नहीं लेते। तो यह पुण्य का भोग रोकना हुआ।
आज आप जो भी सुख, सम्पनता, सुस्वास्थ्य, अच्छा कुल, उच्च धर्म इत्यादि भोग रहे हो वह सब आपके पूर्व संचित पुण्य का ही प्रतिफल है। इसलिए व्यक्ति को अपने आचरण को पुण्यार्जक गतिविधियों में लगाना चाहिए और पुण्य बढ़ाने की गतिविधियों में ही रहना चाहिए।
पुण्य की यह एफ.डी ही वास्तव में आगे के भवो में सुखद स्थिति के लिए कारक होगी। इसमें भी सावधानी यह रखनी होगी की पुण्य की एफ.डी में से सिर्फ ब्याज ही काम में ले, मूलधन को सुरक्षित रखा जाय। पूजन सामग्री उत्कृष्ट हो तो पूजन का फल भी उत्कृष्ट मिलता है। जैसी सामग्री हो वैसा ही मन भी हो जाता है जैसे थाली में रखा भोजन।
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