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लालू प्रसाद के जातीय ध्रुवीकरण का टूटता तिलस्म, उठने लगे हैं RJD पर सवाल
पटना। देश की राजनीति में अपने मनोरंजक और चुटीले बयानों के साथ राजनीति की अलग लकीर खींचने वाले लालू प्रसाद यादव हमेशा सुर्खियों में बने रहते हैं। लोगों की सियायी नब्ज की पहचान रखने वाले राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष लालू प्रसाद इस लोकसभा चुनाव में नहीं दिखे, जिसका खामियाजा भी उनके दल को उठाना पड़ा। केंद्र में कभी किंगमेकर की भूमिका निभाने वाले लालू आज उस बिहार से करीब 350 दूर झारखंड की राजधानी रांची की एक जेल में सजा काट रहे हैं, जहां उनकी खनक सियासी गलियारे से लेकर गांव के गरीब-गुरबों तक में सुनाई देती थी।
इस लोकसभा चुनाव में राजद के एक भी सीट पर जीत नहीं दर्ज करने के बाद राजद के साथ बिना शर्त गठबंधन करने वाली पार्टी कांग्रेस के नेता भी अब राजद पर सवाल उठाने लगे हैं। कहा जाता है कि इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने जातीय समीकरण की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद के इस तिलस्म को तोड़ दिया है। बिहार की राजनीति पर नजदीकी नजर रखने वाले संतोष सिंह की चर्चित पुस्तक रूल्ड ऑर मिसरूल्ड द स्टोर एंड डेस्टीनी ऑफ बिहार में कहा गया है कि बिहार में जननायक कर्पूरी ठाकुर की मौत के बाद लालू प्रसाद ने उनकी राजनीतिक विरासत संभालने वाले नेता के रूप में पहचान बनाई और इसमें उन्होंने काफी सफलता भी पाई।
सिंह कहते हैं कि उन्होंने गरीबों के बीच जाकर खास पहचान बनाई और गरीबों के नेता के रूप में खुद को स्थापित किया। इससे पहले बिहार में जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन हो रहा था, तो लालू ने सक्रिय छात्र नेता के तौर पर उसमें भाग लेकर अपनी राजनीति का आगाज किया था। आंदोलन के बाद हुए चुनाव में लालू यादव को जनता पार्टी से टिकट मिला और वे 1977 में चुनाव जीत कर पहली बार संसद पहुचे।
सांसद बनने के बाद लालू का कद राजनीति में बड़ा होने लगा और वे साल 1990 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। वर्ष 1997 में जनता दल से अलग होकर उन्होंने राजद का गठन किया। इस दौरान लालू से उनके विश्वासपात्र और बड़े नेता उनका साथ छोड़ते रहे। इस बीच राजद 2015 तक बिहार की सत्ता पर काबिज जरूर रहे, लेकिन इसी बीच उन्हें बड़ा झटका लगा और चर्चित चारा घोटाले में उन पर आरोपपत्र दाखिल हो गया।
पुस्तक में कहा गया है, भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिम मतदाता जहां कांग्रेस से बिदककर राजद की ओर बढ़ गए, वहीं यादव मतदाता स्वजातीय लालू को अपना नेता मान लिया। इस बीच, नीतीश कुमार ने भी नए सोशल इंजीनियरिंग का तानाबाना बुनकर उसमें सुशासन और विकास को जोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से गठबंधन कर बिहार की सत्ता से लालू को उखाड़ फेंका।
इस लोकसभा चुनाव में राजद के एक भी सीट पर जीत नहीं दर्ज करने के बाद राजद के साथ बिना शर्त गठबंधन करने वाली पार्टी कांग्रेस के नेता भी अब राजद पर सवाल उठाने लगे हैं। कहा जाता है कि इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने जातीय समीकरण की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद के इस तिलस्म को तोड़ दिया है। बिहार की राजनीति पर नजदीकी नजर रखने वाले संतोष सिंह की चर्चित पुस्तक रूल्ड ऑर मिसरूल्ड द स्टोर एंड डेस्टीनी ऑफ बिहार में कहा गया है कि बिहार में जननायक कर्पूरी ठाकुर की मौत के बाद लालू प्रसाद ने उनकी राजनीतिक विरासत संभालने वाले नेता के रूप में पहचान बनाई और इसमें उन्होंने काफी सफलता भी पाई।
सिंह कहते हैं कि उन्होंने गरीबों के बीच जाकर खास पहचान बनाई और गरीबों के नेता के रूप में खुद को स्थापित किया। इससे पहले बिहार में जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन हो रहा था, तो लालू ने सक्रिय छात्र नेता के तौर पर उसमें भाग लेकर अपनी राजनीति का आगाज किया था। आंदोलन के बाद हुए चुनाव में लालू यादव को जनता पार्टी से टिकट मिला और वे 1977 में चुनाव जीत कर पहली बार संसद पहुचे।
सांसद बनने के बाद लालू का कद राजनीति में बड़ा होने लगा और वे साल 1990 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। वर्ष 1997 में जनता दल से अलग होकर उन्होंने राजद का गठन किया। इस दौरान लालू से उनके विश्वासपात्र और बड़े नेता उनका साथ छोड़ते रहे। इस बीच राजद 2015 तक बिहार की सत्ता पर काबिज जरूर रहे, लेकिन इसी बीच उन्हें बड़ा झटका लगा और चर्चित चारा घोटाले में उन पर आरोपपत्र दाखिल हो गया।
पुस्तक में कहा गया है, भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिम मतदाता जहां कांग्रेस से बिदककर राजद की ओर बढ़ गए, वहीं यादव मतदाता स्वजातीय लालू को अपना नेता मान लिया। इस बीच, नीतीश कुमार ने भी नए सोशल इंजीनियरिंग का तानाबाना बुनकर उसमें सुशासन और विकास को जोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से गठबंधन कर बिहार की सत्ता से लालू को उखाड़ फेंका।
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