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ग्लोबल वॉर्मिंग: कहीं कड़ाके की ठंड, कहीं भीषण गर्मी, जानें-भारत पर कितना असर
नई दिल्ली। वर्तमान में ग्लोबल वॉर्मिंग का असर दुनियाभर में साफ नजर आ रहा है। एक ओर जहां पूरा उत्तर भारत ठंड और शीतलहर की चपेट में है। वहीं अमेरिका, चीन और कनाडा जैसे देशों में भीषण सर्दी पड़ रही है। लेकिन, ऑस्ट्रेलिया 79 साल की सबसे भीषण गर्मी का सामना कर रहा है। ऑस्टे्रलिया सबसे गर्म है और ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में 79 साल बाद 47.5 डिग्री सेल्सियस तापमान रिकॉर्ड किया गया। सिडनी में 1939 में 47.8 डिग्री तापमान दर्ज किया गया था। अमेरिका में 6000 फीट की ऊंचाई पर स्थित न्यू हैंपशायर पहाड़ी में पारा रिकॉर्ड माइनस 73 डिग्री रिकॉर्ड किया गया। यह 85 साल में सबसे कम है।
इससे पहले 1934 में माइनस 57 डिग्री दर्ज किया गया था। इधर, चीन में भारी बर्फबारी के चलते जनजीवन प्रभावित है। बर्फबारी के चलते यहां अब तक 21 लोगों की मौत हो चुकी है और 700 से ज्यादा मकान ढह गए है। जानकारी के मुताबिक कुल एक लाख लोग प्रभावित हुए है और करीब 2800 मकानों को नुकसान हुआ है। वहीं, अफ्रीका के द्वीपीय देश मेडागास्कर में आए तूफान एवा से 29 लोगों की मौत हो चुकी है। अभी भी 22 लोग लापता हैं जबकि 17,170 लोग विस्थापित हो गए हैं। राजधानी मेडागास्कर में 3,191 हेक्टेयर धान के खेतों में बाढ़ आ गई है।
क्या है जलवायु परिवर्तन
ग्लोबल वार्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन का मतलब है हमारी धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी होना। हमारी धरती प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से गरम होती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरते हुए पृथ्वी की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर धरती के ऊपर एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस तरह धरती को गरम बनाए रखता है। इंसानों, दूसरे प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी मोटा होता जाता है। माना जाता है कि पिछली शताब्दी में यानी सन 1900 से 2000 तक पृथ्वी का औसत तापमान 1 डिग्री फैरेनहाइट बढ़ गया है। सन 1970 के मुकाबले वर्तमान में पृथ्वी 3 गुणा तेजी से गर्म हो रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। विश्व के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जाएँगी, समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन का भारत में कितना असर
इससे पहले 1934 में माइनस 57 डिग्री दर्ज किया गया था। इधर, चीन में भारी बर्फबारी के चलते जनजीवन प्रभावित है। बर्फबारी के चलते यहां अब तक 21 लोगों की मौत हो चुकी है और 700 से ज्यादा मकान ढह गए है। जानकारी के मुताबिक कुल एक लाख लोग प्रभावित हुए है और करीब 2800 मकानों को नुकसान हुआ है। वहीं, अफ्रीका के द्वीपीय देश मेडागास्कर में आए तूफान एवा से 29 लोगों की मौत हो चुकी है। अभी भी 22 लोग लापता हैं जबकि 17,170 लोग विस्थापित हो गए हैं। राजधानी मेडागास्कर में 3,191 हेक्टेयर धान के खेतों में बाढ़ आ गई है।
क्या है जलवायु परिवर्तन
ग्लोबल वार्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन का मतलब है हमारी धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी होना। हमारी धरती प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से गरम होती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरते हुए पृथ्वी की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर धरती के ऊपर एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस तरह धरती को गरम बनाए रखता है। इंसानों, दूसरे प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी मोटा होता जाता है। माना जाता है कि पिछली शताब्दी में यानी सन 1900 से 2000 तक पृथ्वी का औसत तापमान 1 डिग्री फैरेनहाइट बढ़ गया है। सन 1970 के मुकाबले वर्तमान में पृथ्वी 3 गुणा तेजी से गर्म हो रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। विश्व के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जाएँगी, समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन का भारत में कितना असर
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