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...तो ऐसे काबू में आएगा आपका मन
अक्सर कहा जाता है कि मन पर किसी का भी काबू नहीं है। बडे-बडे ऋषि-मूनि भी
मन पर काबू नहीं पा सके और जो भी मन पर काबू पा लिया उसने परमात्मा के
साक्षात दर्शन कर लिए। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख किया गया है प्रत्येक
मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण होना अति आवश्यक है। आइए आपको बताते है कि
मन पर नियंत्रण होना क्या आवश्यक है। यदि व्यक्ति यदि एक क्षण भी मन
इन्द्रियों पर नियंत्रण को छोड देता है तो उसी समय यम नियम का भंग हो जाता
है और विनाशकारी कार्य कर लेता है।
ऐसे ही जब व्यक्ति ईश्वर से संबंध तोड लेता है तो उसी समय प्रकृति से जुड जाता है और अज्ञान रूपी अंधकार को प्राप्त होता है। जैसे चालक गाडी की गति से अधिक गति अपने मन में रखता है तभी गाडी को नियंत्रण कर पाता है। ऐसे ही अत्यधिक वेगवान वस्ती मन को चलाने, नियंत्रण में रखने के लिए आत्मा को उससे अधिक शीघ्रातिशीघ्र इच्छाएं, योजनाएं बनाने, बदलने में समर्थ होना पडेगा, अधिक पुरुषार्थ करना पडेगा।
मन वास्तव में वस्तु का सही स्वरूप दिखाता है, परन्तु हम स्वयं अपनी भावनाएं उस वस्तु से जोड लेते है और प्रभावित हो जाते हैं, इसलिए बडी सावधानी रखकर उस विषय के संस्कार न उठाना चाहिए। मन-वचन-कर्म से हम जो भी कार्य करते है उन सभी कर्मों का उत्तरदायित्व स्वयं हमारा हैं हम स्वयं कर्ता हैं, मन, इन्द्रियां तो जड है। अक्सर हम देखते है कि हंसी-मजाक करते समय व्यक्ति को बाह्यवृति के रूप में व्यर्थ और अनावश्यक विचार-चिंतन करना पडता है ताकि सामने वालो का अधिकाधिक मनोरंजन हो सके। इस स्थिति में मन की चंचल अवस्था होती हैं। मन को जड मानने और इच्छानुसार चलाने के अभ्यासक्रम में पहले शरीर को स्थिर रखना चाहिए। इसके लिए जिस अंग में लगे कि प्रतिकूलता सी है उसे बलपूर्वक न हिलाना, वहां से इच्छा को हटा लेना चाहिए। ऐसे ही सारे शरीर को स्थिर करना चाहिए।
पुन: मन को इच्छापूर्वक स्थिर करना चाहिए। इसके लिए मन और जीवात्मा के गुण-धर्म जानना आवश्यक है। सारे व्यवहारों में जो भी क्रियाएं होती हैं, उसमें जीवात्मा की इच्छा, प्रयत्न, मन को प्रेरणा देना, मन द्वारा बुद्धि, इन्द्रियों को प्रेरणा देना आदि जानना चाहिए। इतना जानने के पश्चात मन को रोकने में सफलता मिलेगी। इच्छा, ज्ञान रोकने पर मन को भी रोक सकते हैं। मन को रोकने का अभ्यास करने पर उसे जहां चाहे जिस विषय में लगा सकते हैं और किसी वस्तु वा विषय से हटा भी सकते हैं।
ऐसे ही जब व्यक्ति ईश्वर से संबंध तोड लेता है तो उसी समय प्रकृति से जुड जाता है और अज्ञान रूपी अंधकार को प्राप्त होता है। जैसे चालक गाडी की गति से अधिक गति अपने मन में रखता है तभी गाडी को नियंत्रण कर पाता है। ऐसे ही अत्यधिक वेगवान वस्ती मन को चलाने, नियंत्रण में रखने के लिए आत्मा को उससे अधिक शीघ्रातिशीघ्र इच्छाएं, योजनाएं बनाने, बदलने में समर्थ होना पडेगा, अधिक पुरुषार्थ करना पडेगा।
मन वास्तव में वस्तु का सही स्वरूप दिखाता है, परन्तु हम स्वयं अपनी भावनाएं उस वस्तु से जोड लेते है और प्रभावित हो जाते हैं, इसलिए बडी सावधानी रखकर उस विषय के संस्कार न उठाना चाहिए। मन-वचन-कर्म से हम जो भी कार्य करते है उन सभी कर्मों का उत्तरदायित्व स्वयं हमारा हैं हम स्वयं कर्ता हैं, मन, इन्द्रियां तो जड है। अक्सर हम देखते है कि हंसी-मजाक करते समय व्यक्ति को बाह्यवृति के रूप में व्यर्थ और अनावश्यक विचार-चिंतन करना पडता है ताकि सामने वालो का अधिकाधिक मनोरंजन हो सके। इस स्थिति में मन की चंचल अवस्था होती हैं। मन को जड मानने और इच्छानुसार चलाने के अभ्यासक्रम में पहले शरीर को स्थिर रखना चाहिए। इसके लिए जिस अंग में लगे कि प्रतिकूलता सी है उसे बलपूर्वक न हिलाना, वहां से इच्छा को हटा लेना चाहिए। ऐसे ही सारे शरीर को स्थिर करना चाहिए।
पुन: मन को इच्छापूर्वक स्थिर करना चाहिए। इसके लिए मन और जीवात्मा के गुण-धर्म जानना आवश्यक है। सारे व्यवहारों में जो भी क्रियाएं होती हैं, उसमें जीवात्मा की इच्छा, प्रयत्न, मन को प्रेरणा देना, मन द्वारा बुद्धि, इन्द्रियों को प्रेरणा देना आदि जानना चाहिए। इतना जानने के पश्चात मन को रोकने में सफलता मिलेगी। इच्छा, ज्ञान रोकने पर मन को भी रोक सकते हैं। मन को रोकने का अभ्यास करने पर उसे जहां चाहे जिस विषय में लगा सकते हैं और किसी वस्तु वा विषय से हटा भी सकते हैं।
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