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हमारे धर्म शास्त्रों में ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थिति प्रदान की गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सात्विक गुणों की प्रधानता के कारण ब्राह्मण हमारे सदज्ञान से सारे समाज को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न करता है। यज्ञ करना, यज्ञ कराना, पढना, पढाना और दान देना व लेना-ये ब्राह्मण के षट्धर्म हैं। सारे लोग सन्मार्ग पर चलें, उन्नति करें और सुसंस्कार अपनाएं, इसके लिए ब्राह्मण दूसरों की तुलना में अधिक त्यागी, तपस्वी, संयमी व अपरिग्रही रहकर अपना व्यक्तित्व श्रद्धास्पद बनाता है। उसे गरीबी में भी रहना पडे, तो भी अपने आंतरिक उल्लास और बाहरी आनंद में कोई कमी नहीं आने देता। वेद में ब्राह्मण के गुणों के बारे में विस्तार से बताया गया है। यजुर्वेद में कहा गया है- ब्राह्मणो अस्य मुखमासीत। 31/11 अर्थात ब्राह्मण ब्राह्मा के मुख के समान होता है। उत्तम ज्ञान को प्राप्त करके मुख वाणी के द्वारा उसका प्रचार करता है। दूसरी विशेषता यह है कि मुख में जो कुछ डाला जाता है, उसे वह अपने पास न रखकर आगे बढा देता है। मुख की एक विशेषता और है कि कठिन से कठिन सर्दी में भी वह नंगा ही रहता है। इसलिए यह शरीर में सबसे बडा तपस्वी हिस्सा है।
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